कुणाल कामरा ने पैरोडी सॉन्ग पर दर्ज एफआईआर रद्द करने को लेकर हाईकोर्ट में लगाई गुहार, बोले- ये मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन है
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- Apr 9
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कॉमेडियन कुणाल कामरा ने हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। उन्होंने एक एफआईआर को रद्द करने की मांग की है, जो उनके एक पैरोडी (मजाकिया) गाने को लेकर दर्ज की गई थी। इस गाने को लेकर कुछ लोगों ने आपत्ति जताई थी और कहा था कि इससे उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं। इस वजह से कुणाल कामरा के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दी गई।
लेकिन कुणाल कामरा का कहना है कि उन्होंने किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से यह गाना नहीं बनाया। उनका कहना है कि यह एक मजाकिया गाना था और इसका मकसद किसी धर्म या व्यक्ति का अपमान करना नहीं था। उन्होंने कहा कि यह गाना सिर्फ एक सामाजिक मुद्दे पर व्यंग्य करने के लिए बनाया गया था।
कुणाल कामरा ने कोर्ट में यह भी कहा कि उनके खिलाफ जो केस दर्ज किया गया है, वह उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। भारतीय संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार देता है। उन्होंने कहा कि अगर एक कलाकार को अपने विचार व्यक्त करने की आज़ादी नहीं मिलेगी, तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाएगा।
कामरा ने यह भी कहा कि वे एक कॉमेडियन हैं और उनका काम है समाज की सच्चाई को मजाकिया तरीके से पेश करना। उन्होंने यह भी बताया कि उनका गाना किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं था, बल्कि यह एक मजाक था जो समाज में चल रही चीज़ों पर आधारित था।
इस याचिका में कुणाल कामरा ने मांग की है कि उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द किया जाए और उन्हें इस मामले में परेशान न किया जाए। उन्होंने यह भी बताया कि इस गाने को इंटरनेट पर पोस्ट करने का मतलब यह नहीं कि वह किसी को अपमानित करना चाहते थे।
कोर्ट ने इस याचिका को सुनने का फैसला लिया है और जल्द ही इस पर सुनवाई होगी। अब देखना होगा कि कोर्ट इस पर क्या निर्णय लेता है।
इस मामले ने सोशल मीडिया पर भी काफी चर्चा बटोरी है। कुछ लोग कुणाल कामरा के समर्थन में हैं और उनका कहना है कि कलाकारों को अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। वहीं कुछ लोग कहते हैं कि मजाक की भी एक सीमा होनी चाहिए और किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए।
इस पूरी घटना से यह सवाल उठता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और धार्मिक भावनाओं के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए। क्या एक कलाकार को अपने विचार रखने की पूरी छूट होनी चाहिए, या फिर उसे समाज की सीमाओं का ध्यान रखना चाहिए? कोर्ट के फैसले से इस मुद्दे पर कुछ स्पष्टता आ सकती है।
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